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मां नरः॒ स्वश्वा॑ वा॒जय॑न्तो॒ मां वृ॒ताः स॒मर॑णे हवन्ते। कृ॒णोम्या॒जिं म॒घवा॒हमिन्द्र॒ इय॑र्मि रे॒णुम॒भिभू॑त्योजाः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

māṁ naraḥ svaśvā vājayanto māṁ vṛtāḥ samaraṇe havante | kṛṇomy ājim maghavāham indra iyarmi reṇum abhibhūtyojāḥ ||

पद पाठ

माम्। नरः॑। सु॒ऽअश्वाः॑। वा॒जय॑न्तः। माम्। वृ॒ताः। स॒म्ऽअर॑णे। ह॒व॒न्ते॒। कृ॒णोमि॑। आ॒जिम्। म॒घऽवा॑। अ॒हम्। इन्द्रः॑। इय॑र्मि। रे॒णुम्। अ॒भिभू॑तिऽओजाः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:42» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (स्वश्वाः) सुन्दर घोड़े वा अग्नि आदि जिनके विद्यमान और (माम्) मुझको (वाजयन्तः) जानते वा जनाते हुए (वृताः) स्वीकार जिन्होंने किया वे (नरः) नायक जन (समरणे) संग्राम में (माम्) मेरी (हवन्ते) स्पर्द्धा अर्थात् स्वीकार करते हैं वहाँ (मघवा) अत्यन्त श्रेष्ठ धनयुक्त (इन्द्रः) तेजस्वी (अभिभूत्योजाः) दुष्टों का अभिभव करनेवाले बल से युक्त (अहम्) मैं (आजिम्) संग्राम को (कृणोमि) करता हूँ (रेणुम्) धूलि को (इयर्मि) प्राप्त होता हूँ, वैसे तुम लोग भी मेरा स्वीकार करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो जन सब वस्तुओं में प्राप्त होनेवाले, सब के अन्तर्यामि और सर्वशक्तिमान् मुझ परमात्मा की संग्राम में प्रार्थना करते हैं, उन्हीं का मैं विजय कराता हूँ और जो धर्म से युद्ध करते हैं, उन्हीं का मैं सहायक होता हूँ ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा स्वश्वा मां वाजयन्तो वृता नरो समरणे मां हवन्ते तत्र मघवेन्द्रोऽभिभूत्योजा अहमाजिं कृणोमि रेणुमियर्मि तथा यूयमपि मां वृणोत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (माम्) (नरः) नायकाः (स्वश्वाः) शोभना अश्वास्तुरङ्गा अग्न्यादयः पदार्था वा येषान्ते (वाजयन्तः) जानन्तो ज्ञापयन्तो वा (माम्) (वृताः) कृतस्वीकाराः (समरणे) सङ्ग्रामे (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते स्वीकुर्वन्ति (कृणोमि) करोमि (आजिम्) सङ्ग्रामम् (मघवा) परमपूजितधनः (अहम्) (इन्द्रः) (इयर्मि) प्राप्नोमि (रेणुम्) रजः (अभिभूत्योजाः) अभिभूतिर्दुष्टानामभिभवकर्त्रोजो यस्य सः ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये सर्वव्यापकं सर्वान्तर्यामिणं सर्वशक्तिमन्तं परमात्मानं सङ्ग्रामे प्रार्थयन्ति तेषामेवाहं विजयं कारयामि ये च धर्म्येण युध्यन्ते तेषामेव सहायो भवामि ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे लोक सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी व सर्वशक्तिमान परमेश्वराची युद्धात प्रार्थना करतात त्यांना मी (परमात्मा) विजय प्राप्त करवून देतो व जे धर्माने युद्ध करतात त्यांचाच मी सहायक असतो. ॥ ५ ॥